भारत में आतंकवाद, अलगाववाद और अत्याचार का प्रतीक रही धारा 370 को समाप्त हुए लगभग दो वर्ष बीतने वाले हैं, लेकिन कुछ लोगों को रह-रह कर उसकी वापसी का असंभव सपना आता ही रहता है। इसमें एक तो है हमारा सनातन दुश्मन पाकिस्तान जिसके पीएम इमरान खान आए दिन धारा 370 को याद कर आंसू बहाते रहते हैं। पाकिस्तान का 370 को याद करके दुखी होना बनता है क्योंकि इसकी समाप्ति ने कश्मीर को कब्जाने की दशकों पुरानी पाकिस्तानी साजिश को मटियामेट कर दिया। लेकिन जिस तरह भारत की कुछ प्रमुख राजनीतिक शक्तियां 370 को याद करके दुखी हो जाया करती हैं और इशारों-इशारों में सत्ता पाने पर उसे बहाल करने का संकेत देती रहती हैं वह सामान्य समझ से परे है। फिर ऐसे ही तत्व शिकायत भी करते रहते हैं कि देश के प्रति उनकी निष्ठा पर संदेह क्यों किया जाता है।
अभी हाल ही में देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के एक प्रमुख राजनेता दिग्विजय सिंह ने एक पाकिस्तानी पत्रकार के साथ बातचीत में कहा कि उनकी पार्टी की सरकार बनने पर धारा 370 की बहाली पर विचार किया जाएगा। विवाद होने पर उक्त नेता ने सफाई देने की कोशिश की, लेकिन अपने बयान के जरिए वे देश के एक मतदाता वर्ग को जो संदेश देना चाहते थे, वह उस तक पहुंच चुका था। इसके पहले भी देश के गृहमंत्री रह चुके इसी पार्टी के नेता पी चिदंबरम धारा 370 को लेकर ऐसे ही विचार प्रकट कर चुके हैं। सवाल है कि ये नेतागण जिस मतदाता वर्ग को खुश करने के लिए ऐसे बयान देते हैं, उसका 370 से क्या लेना-देना है। सहज समझ तो यही कहती है कि धारा 370 के बने रहने में जम्मू-कश्मीर के अलावा देश के बाकी मतदाताओं का कोई हित नहीं है। लेकिन फिर भी अगर यह माना जाता है कि शेष भारत के मुस्लिम मतदाता धारा 370 के समर्थक हैं, तो इसका कारण क्या है ? आखिर आजमगढ़ या अलीगढ़ के भारतीय मुसलमान का 370 से क्या सरोकार है ? वह भी इस सीमा तक कि मुस्लिम मतों के आकांक्षी राजनीतिक दलों को दशकों तक धारा 370 का समर्थन ही नहीं करना पड़ा, अब उसके कालातीत होने के बाद भी उसकी बहाली का संकेत देना पड़ता है। 1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की पहली सरकार बनने वाली थी तो ऐसे ही दलों के दबाव में उसे राम मंदिर और समान नागरिक संहिता की तरह धारा 370 को भी अपने एजेंडे से बाहर रखने पर विवश होना पड़ा था। यह समझना अनेक लोगों के लिए हमेशा से समझ से परे रहा है कि धारा 370 को हटाने की मांग सांप्रदायिक क्यों कही जाती है!
दरअसल, धारा 370 एक बार विभाजित हो चुके भारत को पुनः विभाजित करने के अभियान का प्रस्थान बिंदु रही है। इसके माध्यम से दशकों तक भारत में रह कर भी कश्मीर को भारत से पूरी तरह जुड़ने नहीं दिया गया। एक तरफ हमारे जवानों और नागरिकों का खून बहता रहा, दूसरी तरफ अलगाववादी और आतंकी सरगना देश के प्रधानमंत्रियों के साथ चाय का लुत्फ लेते रहे। लेकिन 370 हटने के साथ ही अलगाववाद को मिलने वाली प्राणवायु की आपूर्ति बंद होती नजर आ रही है। इसीलिए जिन्ना को बाकायदा वोट देकर पाकिस्तान बनवाने और फिर भारत में ही रुक कर अगले विभाजन की पृष्ठभूमि तैयार करने में संलग्न मानसिकता और शक्तियों का पूरा खेल खराब हो़ गया है। उसी को तुष्ट करने और दिलासा देने के लिए चिदंबरम और दिग्विजय जैसे लोग ऐसे बयान देते रहते हैं। लेकिन देश अब कश्मीर में हुई गलतियों को दोहराने को तैयार नहीं है। फिलहाल तो यह संभव नहीं लगता, लेकिन यदि किसी दिन देश की सत्ता में परिवर्तन भी हुआ तो धारा 370 को बहाल करना किसी के लिए संभव नहीं होगा। धारा 370 को हटाकर भारत ने अपने भीतर पल रहे अलगाववाद के कैंसर की कीमोथेरेपी की है। अब आवश्यकता है कि देश विरोधी और घुसपैठिया शक्तियों का गढ़ बनते जा रहे पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में ऐसा ही इलाज आरंभ किया जाए। ऐसे नेताओं की कमी नहीं जो वोट हित में देश की सुरक्षा के सवाल पर भी पलटी मारने से बाज नहीं आते। ऐसे में यह सुनिश्चित करना नागरिकों का भी कर्तव्य है कि राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करने और आंतरिक अलगाववाद के दमन की प्रक्रिया पूरी मजबूती से आगे बढ़ती रहे।
उदाहरण के तौर पर बांग्लादेशी घुसपैठियों से उत्पन्न खतरे पर वोट के लिए हमारे नेताओं के बदलते रुख की कहानी लंबी है। ममता बनर्जी ने 2005 में जिन घुसपैठियों को महा विपत्ति बताया था, वे आज उनके लिए महा संपत्ति बन गए हैं। सन 1992 में तब केंद्र की सत्ताधारी कांग्रेस सहित माकपा और जनता दल ने भी देश के सीमावर्ती इलाकों के निवासियों के लिए परिचय पत्र बनाने की जरूरत बताई थी। लेकिन आज वे पूरी तरह बदल गए हैं। बांग्लादेशी घुसपैठियों की समस्या से पीड़ित राज्यों का सम्मेलन सितंबर, 1992 में दिल्ली में हुआ था। नरसिंह राव सरकार के गृह मंत्री एसबी चव्हाण की अध्यक्षता में असम, बंगाल, बिहार, त्रिपुरा, अरुणाचल और मिजोरम के मुख्यमंत्री और मणिपुर, नगालैंड एवं दिल्ली के प्रतिनिधि उस सम्मेलन में शामिल हुए थे। याद रहे कि तब असम के मुख्य मंत्री हितेश्वर सैकिया (कांग्रेस), बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु (सीपीएम) और बिहार के मुख्य मंत्री लालू यादव (जनता दल) थे। उस सम्मेलन में सर्वसम्मत प्रस्ताव पास किया गया कि देश के सीमावर्ती जिलों के निवासियों को परिचय पत्र दिए जाएं। सम्मेलन की राय थी कि बांग्लादेश से बड़ी संख्या में अवैध प्रवेश के कारण देश के विभिन्न भागों में जनसांख्यिकीय परिवर्तन सहित अनेक गंभीर समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं। इस समस्या से निपटने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा मिलकर एक समन्वित कार्य योजना बनाने पर भी सहमति बनी। लेकिन हुआ कुछ नहीं। परिणाम यह हुआ कि 1992 और 2021 के बीच चिकन नेक और संपूर्ण पूर्वोत्तर क्षेत्र में सुरक्षा की समस्या और भी गंभीर हो गई है। इसके बावजूद इस अति गंभीर समस्या पर आज कई नेताओं और दलों की राय देशहित से अलग और आत्मघाती है। यह जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काटने वाली मानसिकता है।
कुछ दिन पहले खबर आई कि पश्चिम बंगाल के जो जिले बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण मुस्लिम बहुल हो चुके हैं, वहां हिन्दुओं को पूजा पाठ करने के लिए मस्जिदों से इजाजत लेनी पड़ रही है। लेकिन इस पर सब तरफ खामोषी है। टेन में सीट के विवाद में हुई हत्या को अंतरराष्ट्रीय मामला बना देने वाले बंगाल से आ रही ऐसी खबरों पर बिल्कुल खामोश हैं। इस खबर की सच्चाई जानने के लिए कितने संवाददाता बंगाल के उन समस्याग्रस्त जिलों के गांवों का दौरा किया है? यह बात हाल में लोक सभा में भी कही गई। यह भी कहा गया कि कोई मीडिया संगठन इस समस्या की रिपोर्ट नहीं कर रहा हैं। सन 2005 की ममता बनर्जी का बांग्लादेशी घुसपैठियों को लेकर रवैया एकदम अलग था। तब पश्चिम बंगाल में अवैध घुसपैठियों के अधिकतर वोट वाम मोर्चा को मिलते थे। अगस्त, 2005 में ममता बनर्जी ने लोक सभा के स्पीकर के टेबल पर कागज का पुलिंदा फेंका। उसमें अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों को मतदाता बनाए जाने के सबूत थे। उनके नाम गैरकानूनी तरीके से मतदाता सूची में शामिल करा दिए गए थे। ममता ने तब लोक सभा में कहा था कि घुसपैठ की समस्या राज्य में महा विपत्ति बन चुकी है। इन घुसपैठियों के वोट का लाभ वाम मोर्चा उठा रहा है। उन्होंने उस पर सदन में चर्चा की मांग की। चर्चा की अनुमति न मिलने पर ममता ने सदन की सदस्यता से इस्तीफा भी दे दिया था। चूंकि एक प्रारूप में विधिवत तरीके से इस्तीफा तैयार नहीं था, इसलिए उसे मंजूर नहीं किया गया।
ममता के मुख्य मंत्री बनने के बाद जब घुसपैठियों के वोट उनकी पार्टी को मिलने लगे, वे पूरी तरह पलट गईं। मार्च, 2020 में ममता बनर्जी ने सार्वजनिक रूप से कहा कि जो भी बांग्लादेश से यहां आए हैं, बंगाल में रह रहे हैं और चुनाव में वोट देते रहे हैं, वे सभी भारतीय नागरिक हैं। इससे पहले सीएए, एनपीआर और एनआरसी के विरोध में ममता ने कहा था कि इसे लागू करने पर गृह युद्ध हो जाएगा। अधिक समय नहीं हुए जब पश्चिम बंगाल से भाजपा सांसद ने संसद में कहा कि पश्चिम बंगाल के कुछ इलाकों में हिंदुओं को त्योहार मनाने के लिए अब स्थानीय इमाम से अनुमति लेनी पड़ती है।
कई साल पहले एक प्रतिष्ठित अखबार में एक खबर छपी थी। उसमें एक गांव की कहानी थी। वह गांव बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों के कारण मुस्लिम बहुल बन चुका था। वहां हिंदू लड़कियां पहले हॉफ पैंट पहन कर हॉकी खेला करती थी। पर संख्या अधिक होने के बाद मुसलमानों ने उनसे कहा कि फुल पैंट पहन कर ही हॉकी खेल सकती है। यह संभव नहीं था। परिणाम हुआ कि उन लड़कियों ने खेलना बंद कर दिया। यह बात तब की है जब माकपा के बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्य मंत्री थे। उनका एक बयान अखबारों में छपा। उन्होंने कहा था कि घुसपैठियों के कारण सात जिलों में सामान्य प्रशासन चलाना मुश्किल हो गया है। बाद में उन्होंने उस बयान का खुद ही खंडन कर दिया। पता चला कि पार्टी हाईकमान के दबाव में उन्होंने कह दिया कि मैंने वैसा कुछ कहा ही नहीं था। कई दशक पहले मांगने पर वाम मोर्चा सरकार ने केंद्र सरकार को सूचित किया था कि 40 लाख अवैध बांग्लादेशी पश्चिम बंगाल में रह रहे हैं। अनुमान लगाइए कि अब 2021 में वह संख्या कितनी बढ़ चुकी होगी। सन 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद उस प्रदेश के कुछ जिलों की स्थिति क्या है? हिंदुओं का दमन इस सीमा तक हो रहा है कि वहां से करीब हजारों लोगों ने भागकर असम की शरण ली है। यह देखकर प्रश्न उठता है कि क्या कश्मीर में पंडितों के पलायन वाली कहानी अब पश्चिम बंगाल में दुहराई जा रही है? कश्मीर जैसी समस्या जहां है, उपचार भी वहां कश्मीर जैसा ही तो करना पड़ेगा! इस गहराती समस्या को अगली पीढ़ियों के लिए तो नहीं छोड़ा जा सकता। कश्मीर का अनुभव कड़वा जा रहा है। आजादी के बाद से ही दशकों तक ‘कश्मीर’ को बिगड़ने दिया गया था। बंगाल में कश्मीर वाली गलती न दुहराई जाए, यह सुनिश्चित करना एक सजग नागरिक के रूप में हम सबका भी कर्तव्य है।
साभार
स्वतंत्र लेखक एडवोकेट गंगा